hindisamay head


अ+ अ-

कविता

नदी बहती है मुझमें

नीरजा हेमेंद्र


बहती रही सदियों से
अब तक
पर्वतों से निकल कर
पथरीली सतह पर
शैशव की किलकारियाँ
उत्ताल तरंगित ध्वनियाँ
आकृष्ट करता
युवा होता
उसका निर्झर रूप
वह चलती है
हरे पर्वतों से उतरती
सृष्टि के सौंदर्य से अभिभूत
खोलती है नेत्र
फूलों के वनों में
अन्न भरे खेतों में
अनवरत रहती है गतिमान
शनैः... शनैः... शनैः...
समतल बहती है शिथिल
यात्रा के उतार-चढ़ाव रहित
संतृप्त करती धरा को
कलुषताएँ समेटती हृदय में
चल पड़ती है वह
स्वयं को करने तिरोहित
भव-सागर से सागर में
नदी की यात्रा का अंतिम पड़ाव...
समाप्त नहीं हुई वह
उद्गम से सागर तक की यात्रा के
संपूर्ण रूप, संपूर्ण अस्तित्व के साथ
वह समाहित हो जाती है मुझमें
नदी बहने लगती है मुझमें...


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में नीरजा हेमेंद्र की रचनाएँ